ठीक इन्हीं शब्दों के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड के चुनाव प्रचार में धमाकेदार एंट्री ली है। जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी इसमें किसी भ्रम या गलतफहमी की गुंजाइश नहीं छोड़ते हैं कि ‘ये’ कौन हैं, जिन्होंने यह भयानक खतरा पैदा कर दिया है। ‘ये’ और कोई नहींं, बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी के दावे के अनुसार, उनके एनडीए का प्रतिद्वंद्वी झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद गठबंधन का शासन “पूरे झारखंड में बसा रहे हैं।” बेशक, प्रधानमंत्री काफी विस्तार से इसका वर्णन करते हैं कि ‘ये’ का खतरा कितना बढ़ चुका है। वह बताते हैं कि स्कूलों में सरस्वती वंदना तक पर रोक लगने लगी है, जिसे पता चलता है कि खतरा कितना बढ़ गया है। तीज-त्यौहारों में पत्थरबाजी होने लगी है, माता दुर्गा को भी रोक दिया गया है, कर्फ्यू लगने लगा है, जिससे पता चलता है कि स्थिति कितनी खतरनाक हो चुकी है। बेटियों के साथ शादी के नाम पर छल-कपट होने लगा है, जिससे पता चलता है कि पानी सिर के ऊपर से गुजर गया है।
बेशक, खतरे का यह सारा आख्यान प्रतिद्वंद्वी जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन को चुनाव के लिए निशाना बनाने के लिए ही है। इसीलिए, यह आख्यान शुरू होता है झारखंड के इस सत्ताधारी गठबंधन पर इसका आरोप लगाने के साथ कि उसने “तुष्टीकरण की राजनीति को चरम पर पहुंचा दिया है”, कि “ये तीनों दल सामाजिक ताना-बाना तोड़ने पर आमादा हैं”, कि “ये तीनों दल घुसपैठिया समर्थक हैं” आदि, आदि और आख्यान खत्म होता है इसके आह्वान के साथ कि “इस घुसपैठिया गठबंधन को अपने एक वोट से उखाड़ फेंकना है।” बीच में खासतौर पर आदिवासियों को लक्षित कर इसका दावा भी किया जाता है कि “अगर जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी की यही कुनीति जारी रही, तो आदिवासी समाज का दायरा सिकुड़ जाएगा।”
बेशक, कोई अति-भोलेपन से यह पूछ सकता है कि यह तो महज घुसपैठ के विरोध का सवाल है, इसमें विभाजनकारी या विशेष रूप से आपत्तिजनक क्या है? हैरानी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री ही नहीं, उनके नेतृत्व में छोटे-बड़े भी भाजपा नेताओं के यही बोल बोलने पर किसी शिकायत को संज्ञान लिए जाने की सूरत में, चुनाव आयोग भी ऐसी ही मुद्रा अपनाए। इतना ही नहीं, वर्तमान चुनाव आयोग के लिए तो शायद इतनी सफाई भी काफी होगी कि प्रधानमंत्री ने रोटी-बेटी-माटी छीनने के लिए किसी का समुदाय का नाम थोड़े ही लिया है ; वह तो आम तौर पर घुसपैठियों के खतरे की बात कर रहे थे। लेकिन, संप्रदाय विशेष का नाम न लेकर ‘वे’ की आड़ में छुपकर तीर चलाने वाले भी और चुनाव आयोग समेत विभिन्न संस्थाओं में बैठे उनके मददगार भी बखूबी जानते हैं कि इस मामले को एक भावनात्मक मुद्दा बनाकर उछालने का मकसद, शुद्घ सांप्रदायिक है।
यह समझने के लिए किसी विशेष जानकारी की जरूरत नहीं है कि संघ-भाजपा जब भी घुसपैठ की बात करते हैं, घुसपैठ का शोर मचाते हैं, उनका निशाना सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों पर होता है। नागरिकता कानून में मोदी सरकार द्वारा थोपे गए संशोधन के बाद तो सच शीशे की तरह साफ हो जाता है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, जहां एक समय में पहले के पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी आए थे, गृह मंत्री अमित शाह से लेकर, पूरा संघ-भाजपा कुनबा बढ़-चढ़कर इसके दावे करता आया है कि किस तरह, नागरिकता कानून संशोधन के अंतर्गत बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता दी जाने वाली है। वास्तव में यह याद दिलाने की शायद ही जरूरत होगी कि नागरिकता कानून में विवादास्पद संशोधन कर, पड़ोसी मुस्लिम बहुल देशों, बांग्लादेश, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान से आए गैर-मुसलमानों के लिए, भारतीय नागरिकता हासिल करना आसान बनाने का ही काम किया गया है। बेशक, यह कानून न सिर्फ सरासर धार्मिक भेदभाव करने वाला है बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के खिलाफ जाकर, नागरिकता के साथ सांप्रदायिक शर्त भी जोड़ता है, इसके बावजूद इसे मोदी सरकार ने देश पर इसे ठीक इसीलिए थोपा है कि यह, मुसलमानों को निशाना बनाने के जरिए, उसके सांप्रदायिक एजेंडा की मदद करता है। इस समय भी प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में पूरा संघ परिवार, झारखंड में उसी सांप्रदायिक एजेंडा के सहारे चुनावी वैतरणी को पार करने की उम्मीद लगाए है।
यह भी महज संयोग ही नहीं है कि न सिर्फ घुसपैठ, बल्कि खासतौर पर बांग्लादेशी घुसपैठ का ऐसा ही हौवा खड़ा करने के जरिए, जिस असम में एनआरसी के नाम पर आम लोगों पर भारी तकलीफें थोपी गयीं और राज्य पर बहुत भारी आर्थिक बोझ भी डाला गया, वहां की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री, हिमंता बिस्वा सरमा झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठियों के खतरे का शोर मचाने में, भाजपा नेताओं में सबसे आगे हैं। हैरानी की बात नहीं होगी कि झारखंड में इसी मुद्दे को उछालने की संभावनाओं को देखते हुए ही, भाजपा ने बिस्वा सरमा को इस चुनाव के लिए इंचार्ज बनाया है। वैसे मध्य प्रदेश के पूर्व-मुख्यमंत्री तथा अब केंद्रीय कृषि मंत्री, शिवराज सिंह चौहान को भी उनके साथ-साथ, सह-इंचार्ज बनाया गया था, लेकिन बिस्वा सरमा ने इस मुद्दे को उछालने की अपनी विशेष योग्यता के सहारे, उन्हें आसानी से किनारे लगा दिया लगता है।
हैरानी की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के उक्त भाषण से पहले से बिस्वा सरमा झारखंड में इसका ऐलान कर प्रधानमंत्री के भाषण के लिए माहौल तैयार कर रहे थे कि, “हम हारेगा न, तो ये पीताम्बर, नीलाम्बर, सिद्घ, कान्हू, बिरसा मुंडा की भूमि को अरफान, इरफान, अंसारी, आलम गीर लूट लेगा…लूट लेगा ये लोग, हमारी बेटियों को लूटा, हमारा जमीन को लूटा, हमारी सरकार को लूटा, हमारे अहंकार को लूटा, हमें आवाज उठाना होगा, एक होना है।” इस खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक चुनावी दुहाई के खिलाफ चुनाव आयोग के सामने जेएमएम द्वारा शिकायत दर्ज कराए जाने पर, चुनाव आयोग ने तो कोई प्रतिक्रिया तक नहीं की लगती है, पर खुद बिस्वा सरमा ने काफी नंगई से यह सफाई जरूर पेश की थी कि उन्होंने तो घुसपैठियों के खिलाफ आवाज उठाई है और इसके खिलाफ शिकायत कर, जेएमएम ने अपने घुसपैठिया समर्थक होने का ही सबूत दिया है!
इसी प्रसंग में इसको याद करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि कई वर्ष लगाकर असम में कराई गई, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) प्रक्रिया का नतीजा क्या हुआ? रंजन गोगोई के सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश रहते हुए, अंतत: अदालत के आदेश से जब नागरिकता के सत्यापन की यह खासतौर पर गरीबों के लिए संकटपूर्ण प्रक्रिया थोपी गई, भाजपा की डबल इंजनिया सरकार तब इसे लेकर बहुत उत्साहित थी। लेकिन, जब उनके दावों के विपरीत, राज्य की कुल आबादी में करीब बीस लाख लोग संदिग्ध नागरिकता वाले निकले और उसमें भी कुछ अनुमानों के अनुसार करीब दो-तिहाई हिंदू निकले, उसके बाद तो भाजपा ने यह एनआरसी कराने वाले तंत्र के खिलाफ और एनआरसी के खिलाफ ही जंग छेड़ दी। नतीजा यह कि कई वर्ष बाद भी इस एनआरसी को अधिसूचित नहीं किया गया है और करीब बीस लाख नागरिकों की नागरिकता का सवाल अधर में ही अटका हुआ है। इसके बाद भी, बिस्वा सरमा झारखंड में एनआरसी कराने का वादा करने में नहीं हिचके हैं।
बहरहाल, झारखंड में आदिवासी बहुल इलाकों में अपनी घुसपैठ बनाने की कोशिश में, घुसपैठ का मुद्दा उछालने का संघ-भाजपा ने पहले ही मन बना लिया था। गृहमंत्री अमित शाह चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले के अपने झारखंड के दौरों में ही, इसे शीर्ष स्तर से उठाने की शुरूआत कर चुके थे। जाहिर है कि जमीनी स्तर पर संघ परिवार का यह प्रचार और बहुत पहले से जारी था। इसे राज्य के लिए भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र को जारी करते हुए अपनी रैली में, अमित शाह ने एक बार फिर जोर-शोर से उठाया और भाजपा सत्ता में आएगी तो ‘घुसपैठियों को चुन-चुनकर निकालने’ के वादे किए। यह भी गौरतलब है कि मोदी के भाषण के दो रोज पहले ही जारी किए गए, भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में भी बाकायदा ‘रोटी, बेटी, मिट्टी के लिए खतरे’ की दुहाई दी गई है, जिसे प्रधानमंत्री ने ‘मंगलसूत्र छीन लेंगे’ आदि की पिछले आम चुनाव की अपनी कुख्यात सांप्रदायिक दुहाई की, अगली कड़ी बना दिया है।
यह इसके बावजूद है कि एक के बाद एक, अनेक वस्तुगत अध्ययनों ने यह दिखाया है कि झारखंड के बंगाल से लगते हुए सीमावर्ती जिलों में और ऐतिहासिक कारणों से भी, बंगलाभाषी मुसलमानों की उल्लेखनीय मौजूदगी के अलावा, बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठ के दावों का कोई आधार ही नहीं है। रोटी और मिट्टी के लिए खतरे के दावे तो और भी झूठे हैं, सिवा इसके कि आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के अनुपात में कुछ कमी जरूर आई है, लेकिन इसके लिए किसी भी तरह की घुसपैठ नहीं, तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीनों के अधिग्रहण के चलते विस्थापन ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। रही बेटियों के लिए खतरे की बात, तो इक्का-दुक्का अंतर्धार्मिक विवाहों को लेकर ही, यह वितंडा खड़ा किया जा रहा है। अध्ययनों के अनुसार ऐसे विवाहों की संख्या भी काफी थोड़ी ही होगी।
इस सब के सिलसिले में दो और सवाल हैं, जो सरकार में शीर्ष पर बैठी मोदी-शाह की जोड़ी से पूछे जाने चाहिए। पहला यह कि जब पिछले करीब पंद्रह वर्ष से जनगणना ही नहीं हुई है, बड़े पैमाने पर घुसपैठ, उसकी वजह से आदिवासियों का दायरा सिकुड़ने आदि के दावे, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री किस आधार पर कर रहे हैं। दूसरा यह कि अगर बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से घुसपैठ हो भी रही है, तो क्या उसकी जिम्मेदारी गृहमंत्री अमित शाह पर ही नहीं आती है, जिनके जिम्मे देश की आंतरिक सुरक्षा है और सीमा सुरक्षा बल जैसे सीमा की सुरक्षा करने वाले बलों की बागडोर, जिनके ही हाथों में है। करीब ग्यारह साल से देश में मोदीशाही चल रही है, फिर घुसपैठ को वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ या विपक्षी सरकारों के खिलाफ हथियार कैसे बन सकते हैं।
फिर भी वे घुसपैठ को झारखंड में सबसे बड़ा मुद्दा बनाने पर वजिद हैं, क्योंकि बंगलादेशी घुसपैठिया कहते ही, सांप्रदायिक पहलू प्रमुख हो जाता है। मुसलमानों के खतरे का जो नारा, पिछले आम चुनाव में पिट चुका था, उसे ही झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव और उप-चुनावों में दोबारा आजमाया जा रहा है। लगता है कि तीसरे कार्यकाल में मोदी के तरकश में एक यही तीर बचा है। तभी तो मोदी ने झारखंड में शुरूआत ही इसी तीर से की है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)