छत्तीसगढ़

हसदेव के विनाश के खिलाफ जारी है जनता का संघर्ष

संपादक चन्द्रकांत कुपेन्द्र

 

हसदेव के विनाश के खिलाफ जारी है जनता का संघर्ष

(आलेख : तपन मिश्रा, अंग्रेजी से अनुवाद : संजय पराते)

छत्तीसगढ़ में नवनिर्वाचित भाजपा सरकार हसदेव अरण्य के जंगल के बड़े हिस्से को साफ करने के लिए पूरी ताकत से आगे बढ़ रही है, जिससे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम द्वारा संचालित अडानी समूह को, राजस्थान और आसपास के राज्यों के लिए बिजली पैदा करने और आपूर्ति के लिए, उसे आबंटित दो बड़े कोयला ब्लॉकों में खुले खनन का मार्ग प्रशस्त हो सके। परसा पूर्व और कांता बेसन (पीईकेबी) कोयला ब्लॉकों में लगभग 135 हेक्टेयर जंगलों को साफ करने की अनुमति दी गई है और इस आशय का एक नोटिस 18 सितंबर, 2023 को जारी किया गया था। भारी सुरक्षा घेरे के तहत हाल ही में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई शुरू हुई है।

जैव विविधता से समृद्ध हसदेव अरण्य के जंगल 170,000 हेक्टेयर में फैले हुए हैं और गोंड आदिवासी और बड़े पैमाने पर शिकार-संग्रह करके जीवन यापन करने वाले विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) जैसे बिरहोर, हलबा, बैगा और अन्य लोग यहां निवास करते हैं। खनन गतिविधियों का प्रभाव क्षेत्र छत्तीसगढ़ राज्य के सूरजपुर, सरगुजा और कोरबा जिलों तक फैला हुआ है।

आधिकारिक तौर पर अनुमान है कि 15,000 पेड़ काटे जाएंगे। हालाँकि, स्थानीय आदिवासी और कार्यकर्ता समूहों ने बताया है कि लगभग 30,000 पेड़ पहले ही काटे जा चुके हैं। निकट भविष्य में 2,50,000 और पेड़ों को इसी तरह की नियति का सामना करना पड़ेगा, जब परसा में अतिरिक्त 840 हेक्टेयर से अधिक जंगल की सफ़ाई शुरू होगी। साल और महुआ जैसे आर्थिक रूप से मूल्यवान पेड़ों, जो आदिवासियों को जीविका और आय प्रदान करने के अलावा अन्य प्रकार से भी उपयोगी हैं, के अलावा कई अन्य पारिस्थितिक और सामाजिक रूप से उपयोगी झाड़ियों और घासों की भी बलि दी जा रही है। वनों की कटाई और खनन-संबंधी गतिविधियों के कारण वन्यजीवों की कई प्रजातियाँ, विशेषकर हाथी, भालू, सरीसृप और अन्य भी विस्थापन की चपेट में आ रहे हैं।

कोयले की उपलब्धता का संभावित पैमाना, और इसके खनन के कारण पारिस्थितिक विनाश और आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य समुदायों पर पड़ने वाले प्रभाव का पैमाना चौंकाने वाला है। ऐसा माना जाता है कि पीईकेबी ब्लॉकों की क्षमता लगभग 200 लाख टन प्रति वर्ष हो सकती है, जबकि घने वन क्षेत्र के अंतर्गत अनुमानित कुल 5 अरब टन कोयला मौजूद हो सकता है, जिससे कुल मिलाकर लगभग 800,000 पेड़ों को खतरा हो सकता है।

*जंगल काटने के पहले भी हुए हैं प्रयास*

ऐसा नहीं है कि यह सब रातों-रात हुआ है और केवल केंद्र और छत्तीसगढ़ राज्य दोनों में भाजपा शासन के तहत हुआ है। हालाँकि, पिछली कांग्रेस राज्य सरकार आदिवासी समूहों और पर्यावरण संगठनों के व्यापक विरोध और दबाव के आगे कम-से-कम कुछ हद तक झुक गई थी।

कुछ प्रेस रिपोर्टों के अनुसार, वर्ष 2022 में 43 हेक्टेयर से अधिक और वर्ष 2023 की शुरुआत में 91 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को साफ करने (काटने) की मंजूरी मिली, लेकिन आदिवासियों और अन्य समूहों के मजबूत प्रतिरोध के सामने ये प्रयास छिटपुट ही साबित हुए और सफल नहीं हुए।

कांग्रेस शासन के दौरान, छत्तीसगढ़ विधानसभा ने 26 जुलाई, 2022 को एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें हसदेव-अरण्य के 2,000 वर्ग किमी. क्षेत्र को खनन मुक्त लेमरू हाथी रिजर्व के रूप में चिन्हित किया गया है, जिसका भाग्य वर्तमान में अधर में लटका हुआ है। वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार, लगभग एक सदी पहले उत्तरी छत्तीसगढ़ हाथियों का घर हुआ करता था, लेकिन बीसवीं सदी की शुरुआत से स्थानीय स्तर पर यह लगभग विलुप्त हो गया था। हाल ही में, हाथियों को पश्चिमी उड़ीसा और दक्षिण-पूर्वी झारखंड में व्यापक खनन और इस्पात परियोजनाओं के कारण स्थानांतरित होकर झारखंड से छत्तीसगढ़ में प्रवेश करते देखा गया है।

एक मामले के जवाब में, पिछली राज्य सरकार ने जुलाई 2023 में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा भी दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि इस क्षेत्र में किसी भी नए खनन रिजर्व को आबंटित करने या उपयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

*विशेषज्ञों की राय और पर्यावरण नियमों की अनदेखी*

पिछले वर्ष 2022 में जारी अलग-अलग पिछली रिपोर्टों में, जिसमें भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) और भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्लूआईआई) की रिपोर्टें प्रमुख हैं, दोनों ने इस क्षेत्र में खनन परियोजना का इस आधार पर कड़ा विरोध किया है कि इससे हसदेव नदी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, मानव-हाथी संघर्ष बढ़ेगा और बहुमूल्य जैव-विविधता को नुकसान पहुंचेगा।

डब्ल्यूआईआई, जिसे इस मामले को देखने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) द्वारा नियुक्त किया गया था, ने कहा है कि हसदेव-अरण्य की कोयला पट्टी और उसके आसपास का 80 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र वनाच्छादित है और कोयला ब्लॉक ज्यादातर जंगल के भीतर हैं। यह क्षेत्र कई दुर्लभ, लुप्तप्राय और संकटग्रस्त जीवों का निवास स्थान भी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि डब्ल्यूआईआई ने कोयला खनन से वनों में रहने वाले समुदायों के जीवन और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव पर भी प्रकाश डाला था।

इस रिपोर्ट के अनुसार, गैर-काष्ठ वनोपज (एनटीएफपी) परिवारों की नकद आय में लगभग 46 प्रतिशत का योगदान देती है। ईंधन की लकड़ी, चारा, औषधीय पौधे, पानी और अन्य संसाधन, जो स्थानीय समुदायों को जंगलों से प्राप्त होते हैं, अगर उनका मुद्रीकरण किया जाता है, तो उनकी आय में 15 से 25 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि होती है।

2014 से पहले, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) और कोयला मंत्रालय ने जंगलों के भीतर ‘गो’ और ‘नो गो’ या ‘इनवॉयलेट’ क्षेत्रों के मानचित्रण के विचार पर काम करना शुरू कर दिया था। ‘गो’ क्षेत्र वह है, जहां वन मंजूरी के अधीन खनन और अन्य विकास गतिविधियां की जा सकती हैं, जबकि ‘नो गो’ क्षेत्रों में ऐसी कोई गतिविधियां नहीं की जा सकती हैं। यह वर्गीकरण वनों के प्रकार, जैव-विविधता की समृद्धि, वन्य जीव मूल्य, वन आवरण, परिदृश्य अखंडता और जल विज्ञान मूल्य जैसे मापने योग्य पारिस्थितिक मानदंडों पर आधारित था। इन सभी मापदंडों को 0-100 पैमाने पर मापा गया था। दुर्भाग्य से, वन संसाधनों पर वनवासियों की निर्भरता को इन मापदंडों में शामिल नहीं किया गया था। उल्लेखनीय है कि हसदेव के जंगलों को भी “नो-गो” क्षेत्र घोषित किया गया है, लेकिन राज्य और केंद्र के विभिन्न अधिकारियों द्वारा समय-समय पर इसकी अनदेखी की गई है।

*आदिवासियों पर थोपी गई है ये अशांति*

वर्तमान सत्तारूढ़ व्यवस्था नियमित रूप से कार्यकर्ताओं और आदिवासी समूहों की विकास विरोधी या विघटनकारी होने के रूप में आलोचना करती है और कुछ विचार-समूहों के खिलाफ की गई कार्रवाईयों में हसदेव आंदोलन का भी हवाला दिया गया है। तथ्य यह है कि खनन और संबंधित वनों की कटाई की गतिविधियों से केवल कॉर्पोरेट घराने को लाभ मिलता है और स्थानीय समुदायों को मिलता है विस्थापन, भूमि और आय की हानि और विभिन्न प्रकार के संसाधनों तक पहुंच की हानि। उन्हें होने वाले तथाकथित विकास में कोई हिस्सेदारी नहीं मिलती है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आदिवासी ऐसी परियोजनाओं के खिलाफ विद्रोह करते हैं, जो भारी पारिस्थितिक विनाश का कारण भी बनती हैं।

इन आदिवासी विरोधी या वन-निवासी विरोधी और पारिस्थितिकी विरोधी कॉर्पोरेट गतिविधियों को वास्तव में वर्ष 2014 के बाद से शासन द्वारा पर्यावरण नियमों की धज्जियां उड़ाकर उनके पक्ष में सक्षम और सुविधाजनक ढंग से चलाया जा रहा है। पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) नियमों के हालिया संशोधन ने इसे और सशक्त बना दिया है। इस संशोधन के जरिए सरकार और कॉर्पोरेट घराने, ईआईए और उचित पारिस्थितिक प्रबंधन योजना के बिना ही, परियोजना क्षेत्रों को सुविधाजनक रूप से पुनर्परिभाषित करके इन समुदायों के प्राकृतिक रहवास को नष्ट कर देंगे। वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में वर्ष 2023 के संशोधन ने भी हसदेव जैसे संरक्षित वन क्षेत्रों को नष्ट करने में मदद की है और वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत वनों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों को कम कर दिया है। वनों के इस तरह के अनियंत्रित विनाश के साथ भारत पेरिस समझौते के तहत वन क्षेत्र बढ़ाने और कार्बन पृथक्करण पर अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की उम्मीद कैसे पाल सकता है?

हसदेव कॉर्पोरेट हितों, विशेषकर पसंदीदा लोगों, के लाभ के लिए जंगलों के बड़े पैमाने पर विनाश का नवीनतम उदाहरण है।

(लेखक पर्यावरणविद और वैज्ञानिक हैं। अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के संयोजक हैं।)

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